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lsquo;दस्ते-सबाrsquo; फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का दूसरा कविता-संग्रह है, जिसका न सिर्फ़ उनके साहित्य में, बल्कि समूचे प्रगतिशील साहित्य में ऐतिहासिक महत्त्व है। यह जब नवम्बर 1952 में प्रकाशित हुआ था, तब फ़ैज़ रावलपिंडी lsquo;साज़िशrsquo; मुक़दमे के तहत हैदराबाद सेंट्रल जेल (पाकिस्तान) में बन्द थे। कॉलेज के दिनों में रोमान से भरपूर फ़ैज़ ने देश-दुनिया की जिन सच्चाइयों का सामना करते हुए lsquo;ग़मे-जानाँrsquo; और lsquo;ग़मे-दौराँrsquo; को एक ही तजुर्बे के दो पहलू माना था, वे और भी ठेठ सूरत में उनके सामने आ चुकी थीं। लेकिन अब इस तजुर्बे के साथ एक और चीज़ जुड़ चुकी थीmdash;जेल का तजुर्बा। फ़ैज़ ने इसका ज़िक्र करते हुए ख़ुद लिखा हैmdash;lsquo;जेलख़ाना आशिक़ी की तरह ख़ुद एक बुनियादी तजुर्बा है, जिसमें फ़िक्र-ओ-नज़र का एकाध नया दरीचा ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाता है।rsquo; इसलिए इस संग्रह में हम फ़ैज़ के उस जज़्बे को और पुरज़ोर होता देख सकते हैं, जिसे कभी उन्होंने lsquo;क्यों न जहाँ का ग़म अपना लेंrsquo; कहकर दिखाया था। साथ ही अपने उसूलों के लिए लड़ने का फौलादी इरादा भी कि lsquo;मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है।rsquo;
SHANTI NATH TRADERS
4.5
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